लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं औरत का कोई देश नहींतसलीमा नसरीन
|
7 पाठकों को प्रिय 150 पाठक हैं |
औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...
मंगल कामना
1. भाइयों की मंगल कामना के लिए कलकत्ता में भैया-दूज यानी भाई को टीका लगाने की तैयारी धूमधाम से शुरू हो गयी है। कई लोगों ने मुझसे भी टीका लगाने का आग्रह किया था। मैंने उन भाइयों को जवाब दिया, 'आप लोग बहन-टीका का इन्तज़ाम करें। बहनों की मंगल कामना करते हुए, उनके माथे पर टीका लगायें। आप लोगों की मंगल कामना तो बहुत दिनों तक होती रही। अब बहनों के मंगल के लिए कुछ करें। नियम बदल डालिए।'
भाई लोग मानो आसमान से गिरे। ऐसी अशुभ और अपशकुन बातें उन लोगों ने जिन्दगी में कभी नहीं सुनी थीं।
2. मैं कभी ईद, पूजा या बड़ा दिन वगैरह नहीं मनाती क्योंकि मैं धर्म नहीं मानती। लेकिन मुझे ढेर सारे एसएमएस मिले-'शुभ विजय-दशमी,' 'शुभ-दीपावली'! सबसे ज़्यादा मिला-'ईद मुबारक,' इसकी वजह क्या थी, इसलिए कि मैं मुसलमान परिवार में पैदा हुई हूँ? इसलिए मुझे मुसलमान ही होना होगा, इसका कोई मतलब नहीं है। मैं आपाद् मस्तक नास्तिक हूँ। किसी की नास्तिकता को सम्मान ज्ञापित करना, इस समाज की रीति नहीं है। इन्सान को किसी-न-किसी धर्म के खड्डे में फेंक देना इन्सान की आदत है। उन्हीं लोगों की जुबानी सुनती हूँ–'तुम लोगों की ईद,' 'तुम लोगों का रोज़ा,' 'तुम लोगों की शबेबरात,' जो मेरी नास्तिकता की बात से पूरी-पूरी तरह परिचित हैं। असल में, इन्सान को 'मिलावट' की इस कदर आदत पड़ गयी है कि वह विशुद्ध कुछ देखता भी है तो उसे समझ में नहीं आता है कि वह विशुद्ध है इसमें मिलावट नहीं है। मैं नास्तिकता की बातें करती हूँ इसलिए अन्दर ही अन्दर मुसलमान नहीं हूँ इस बात पर उन लोगों को भरोसा नहीं होता। ज़िन्दगी में जो मैं विश्वास करती हूँ, वही मैं जीती भी हूँ-सैकड़ों बार यह बात कहने के बाद भी, मैं किसी को समझा नहीं पाती। शायद सचमुच का नास्तिक देखने का तजुर्बा किसी को भी नहीं है या फिर इस युग में अपने को नास्तिक के रूप में परिचय देने के बावजूद घंटा बजते ही 'यह तो कोई धार्मिक नहीं, नितान्त सामाजिक उत्सव है'-यह कह कर, ईद, पूजा, बड़ा दिन में कूद पड़ने वाले लोगों की तो कमी नहीं है! इसलिए बहुतेरे लोग गोरखधन्धे में पड़ जाते हैं, या बेशक उन लोगों के दिमाग में सिर्फ यह बात नहीं आती कि धर्म और धर्म-सम्बन्धी सभी उत्सव, भले वह सामाजिक हो या असामाजिक, अपने को मुक्त करना सरासर सम्भव है।
|
- इतनी-सी बात मेरी !
- पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
- बंगाली पुरुष
- नारी शरीर
- सुन्दरी
- मैं कान लगाये रहती हूँ
- मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
- बंगाली नारी : कल और आज
- मेरे प्रेमी
- अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
- असभ्यता
- मंगल कामना
- लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
- महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
- असम्भव तेज और दृढ़ता
- औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
- एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
- दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
- आख़िरकार हार जाना पड़ा
- औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
- सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
- लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
- तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
- औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
- औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
- पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
- समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
- मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
- सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
- ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
- रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
- औरत = शरीर
- भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
- कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
- जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
- औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
- औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
- दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
- वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
- काश, इसके पीछे राजनीति न होती
- आत्मघाती नारी
- पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
- इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
- नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
- लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
- शांखा-सिन्दूर कथा
- धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं